keep distance from expectations to live comfortably

एक इंसान अपने जीवन में अकारण भी आहत होता रहता है। कोई परिस्थिति, कोई मनुष्य, कोई हादसा, कोई व्याधि, कोई चिंता उसे आहत नहीं करती है। अब आपके मन मस्तिष्क के प्रत्येक कोने से यह प्रश्न उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा होगा कि आखिर इन सबसे इतर किस कारण से भी मानव मन आहत हो सकता है। वह कारण है दूसरों से अनावश्यक अपेक्षाएँ रखना। क्योंकि अपेक्षाएँ अक्सर मानव मन को आहत करती हैं। प्रेम, स्नेह, सम्मान और अपनत्व की डोर से बंधे रिश्तों में ये अपेक्षाएँ गाँठ का काम करती हैं।

"Keep distance from expectations to live comfortably."



शायद ही ऐसा कोई मनुज होगा जिसे अपने करीबी किसी ना किसी व्यक्ति से किसी प्रकार की कोई अपेक्षा नहीं रही होगी। इन अपेक्षाओं का पहाड़ रिश्तों के सहज, सरल मार्ग को दुर्गम बनाता चला जाता है। किसी व्यक्ति से अपेक्षा के प्रत्युत्तर में उपेक्षा की प्राप्ति मानव मन के लिए गहन वेदनादायी होता है। व्यक्ति की अपेक्षाओं का पूर्ण होते रहना असीम आनन्द की अनुभूति प्रदान करता है लेकिन इसके विपरीत जब उसकी अपेक्षाएं भंग होती हैं अथवा पूरी नहीं होती है तो वह अंदर से टूट जाता है। उसे आघात लगता है, जो कई दफा असहनीय पीड़ा देता है।

अपेक्षाएँ रखना मानव मन की प्रवृत्ति है। किसी से कम, किसी से ज्यादा अपेक्षा हो सकती है। लेकिन अपेक्षाओं के आँगन का बंटवारा सभी रिश्तों के बीच सामीप्य के आधार पर सुनिश्चित कर दिया जाता हैं। जो इंसान जितना ज्यादा करीब होता है, उससे अपेक्षाएँ भी उतनी ज्यादा होती हैं।

माता-पिता की अपने बच्चों से, बच्चों की माता-पिता से, पति की पत्नी से, पत्नी की पति से, गुरु की शिष्य से, शिष्य की गुरु से, भाई की भाई से, दोस्त की दोस्त से अपेक्षाएँ रहती ही हैं। रिश्तों की नजदीकी और दूरी अपेक्षाओं के आकार को निर्धारित करती हैं। यह आवश्यक भी नहीं कि व्यक्ति की समस्त अपेक्षाएँ पूर्ण हो। किसी मनुष्य के लिए अपेक्षाएँ नहीं रखना भी असंभव हैं। मानव मन का मोह उसे अपेक्षा रखने के लिए बाध्य करता है।

मनुष्य की अपेक्षा रहती है कि उसके द्वारा किसी व्यक्ति के हित हेतु की गई अच्छाई और भलाई के बदले अच्छाई और भलाई ही प्राप्त होना चाहिए। लेकिन जरूरी नहीं कि हर इंसान उसके प्रति अच्छे इंसान और उन इंसानों द्वारा उसके हित में किए गए कार्यों का कृतज्ञ रहे। जब ऐसा होता है और किसी इंसान को अपनी अच्छाई और भलाई की अपेक्षा में अच्छाई और भलाई प्राप्त नहीं होती है, बल्कि अपयश और उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है तब व्यक्ति स्वयं को ठगा हुआ और पीड़ित अनुभव करता है।

अपेक्षा किसी व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के प्रति वह विश्वास होता है कि मुझे मेरे स्नेह, समर्पण, निष्ठा, वफादारी के प्रत्युत्तर में स्नेह, समर्पण, निष्ठा, वफादारी ही प्राप्त होगी। किन्तु इसके विपरीत प्रत्युत्तर की प्राप्ति अनुकूल अपेक्षा के प्रति आशान्वित इंसान के लिए किसी विश्वासघात से कम नहीं होती है।

लगातार अपेक्षाओं का भंग होते रहना व्यक्ति के आत्मविश्वास का भी क्षरण करता है। दैनिक दिनचर्या में मामूली अपेक्षाओं के भंग होने से भी इंसान खुद को बहुत आहत महसूस करता है। रोज लोगों का एक-दूसरे से मिलना-जुलना, आमने-सामने से गुजरना और परस्पर नमस्कार, अभिवादन चलता रहता हैं। ऐसे में यदि किसी दिन कोई परिचित किसी कारणवश बिना नमस्कार, अभिवादन किए सामने से गुजर जाए तो इतनी सी बात भी किसी व्यक्ति को आहत कर जाती है।

क्योंकि नमस्कार, अभिवादन की जो अपेक्षा थी, वो अपेक्षा उस दिन उस व्यक्ति से पूर्ण नहीं हो पाती है। हम किसी व्यक्ति के प्रति जितना ज्यादा समर्पित है, ये जरूरी नहीं है कि वो व्यक्ति भी हमारे प्रति उतना ही ज्यादा समर्पित हो। इतनी सी बात यदि कोई इंसान समझ ले तो अपेक्षाओं से आहत होने की पीड़ा से उसे गुजरना नहीं पड़े। कहा जाता है कि इंसान अपनों से ही अपेक्षा रखता है। लेकिन ऐसे अपने भी कैसे अपने जो अपेक्षाओं पर पूरे नहीं उतर सकते। और जब अपेक्षा पूरी नही होती तो इन्हीं अपनों से अलगाव, दूरी बढ़ती जाती है।

इसलिए संबंधों के बीच अपेक्षाओं की दीवार खड़ी ना करें। जीवन को आनंद, सुकून से जीने के लिए व्यर्थ अपेक्षाओं के जंजाल से दूर ही रहे। जिसने अपेक्षाओं का त्याग करना सीख लिया, उसने ज़िंदगी को सुकून, निश्चिंतता से जीने का तरीका जान लिया।