
भारतीय संस्कृति में गुरू का स्थान सबसे उच्च माना गया है। देश में आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन गुरू पूर्णिमा का पर्व पूरे उत्साह से मनाया जाता है। वेदों, उपनिषदों व पुराणों के रचयिता महर्षि वेदव्यासजी के जन्मदिन के रूप में गुरू पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है।
दुर्गम मार्ग को सुगम बनाते है गुरु। गुरु के आशीष, मार्गदर्शन से शिष्यों की होती हैं उन्नति। गुरु की कृपा के प्रति आभार व्यक्त करने का पर्व है गुरु पूर्णिमा।
भारतीय संस्कृति में गुरू का स्थान सबसे उच्च माना गया है। देश में आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन गुरू पूर्णिमा का पर्व पूरे उत्साह से मनाया जाता है। वेदों, उपनिषदों व पुराणों के रचयिता महर्षि वेदव्यासजी के जन्मदिन के रूप में गुरू पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है।
मान्यता है कि चारों वेदों को लिपिबद्ध करने के कारण ही महर्षि व्यास का नाम वेदव्यास हुआ। उन्हीं के सम्मान में गुरू पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहते है। आषाढ़ की समाप्ति और श्रावण के आरंभ की संधि को आषाढ़ी पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा और गुरू पूर्णिमा कहते है। हमारे जीवन में गुरू का महत्व समझाने के लिए गुरू पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है।
भारतवर्ष में अनेक विद्वान गुरू हुए हैं लेकिन महर्षि वेदव्यास ही ऐसे प्रथम गुरू थे जिन्होंने सनातन धर्म के चारों वेदों की व्याख्या की थी। वेदव्यास ऋषि पराशर के पुत्र थे। महर्षि वेदव्यास ने ही ब्रह्मसूत्र, श्रीमद भागवत, महाभारत की रचना की थी। आषाढ़ी पूर्णिमा को वेदव्यास का जन्म समय माना जाता है। इसलिए आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है।
जीवन में गुरू का विशेष महत्व है। सर्वप्रथम गुरू शब्द के मूल अर्थ को समझने की आवश्यकता है। संस्कृत में ’गु’ शब्द का अर्थ होता है अंधकार एवं ‘रू‘ शब्द का अर्थ होता है ‘प्रकाश‘। अर्थात अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाने वाले को गुरू कहते है। भावी जीवन के निर्माण में गुरू की अहम् भूमिका होती है। शिष्य अपने गुरू की कृपा के फलस्वरूप अपने जीवन के लक्ष्यों को सरलता से प्राप्त कर सकता है।
गुरू परमात्मा तक पहुॅंचाने का रास्ता बताते है। इसलिए गुरू का स्थान ईश्वर से भी ऊॅंचा बताया गया है। गुरू सभ्य सामाजिक जीवन का आधार स्तंभ है। शिष्य के अंतर मन को आहत किए बिना गुरू अपने शिष्य को सभ्य जीवन जीने योग्य बनाते है। गुरू अपने शिष्य को गलत मार्ग से हटाकर सही रास्ते पर लाते है।
भारत में गुरूजनों का बहुत सम्मान किया जाता है। मानव जीवन का विकास सतत सुचारू रूप से चलता रहे इसके लिए गुरू का होना आवश्यक है। गुरू मानव मन में व्याप्त समस्त बुराईयों का नाश करते है। पौराणिक काल से ही ऐसे अनेक उदाहरण है जिससे ज्ञात होता है कि किसी भी व्यक्ति को महान बनाने में गुरू का विशेष योगदान रहता है। रामायण की रचना करने वाले महर्षि वाल्मिकी प्रारंभ में दस्यु थे। लेकिन नारदजी जैसे गुरू के संपर्क में आते ही उनका हृदय परिवर्तन हुआ और वे दस्युकर्म छोड़कर महर्षि वाल्मिकी हुए।
आत्म साक्षात्कार गुरू कृपा से ही संभव है। स्वामी विवेकानंद को परमात्मा को पाने की तीव्र इच्छा थी। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जब उन्हें गुरू के रूप में प्राप्त हुए तब जाकर उनके आशीर्वाद से स्वामी विवेकानंद की यह इच्छा पूर्ण हुई। हिन्दवी स्वराज्य के संस्थापक, औरंगजेब के अहंकार को अपने शौर्य से मिट्टी में मिलाने वाले मराठा वीर छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन पर उनके गुरू समर्थ रामदास का गहरा प्रभाव था। चंद्रगुप्त मौर्य को गुरू चाणक्य के आशीर्वाद, मार्गदर्शन और शिक्षा से ही सत्ता का सिंहासन प्राप्त होकर सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के रूप में अमिट पहचान प्राप्त हुई।
भारत में युगों से गुरू का विशेष महत्व रहा है। ‘आचार्य देवोभवः’ भारत की पुनीत परंपरा रही है। गुरू कृपा से ही आत्मदर्शन और परमात्म दर्शन संभव है। गुरू विकास के लिए प्रेरित करते हैं, विघ्नों का विनाश करते हैं। गुरू अपने शिष्य के जीवन में ऊर्जा का संचार करते है। मानव आत्मा को गुरू की प्रेरणा ही चैतन्यमय बनाती है।
ऐसे अनेक गुरू हुए हैं, जिनकी प्राप्त शिक्षा के प्रभाव से उनके शिष्यों ने राष्ट्र की धारा को ही बदल दिया। गुरु कृपा से दुनिया को देखने का सही दृष्टिकोण प्राप्त होता है। जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों का मुकाबला करने व कठिन राह पर मजबूती से खड़े रहने का साहस गुरु से ही प्राप्त होता है। गुरु पूर्णिमा ऐसे समस्त गुरुजनों के प्रति सिर झुकाकर उनका आशीर्वाद प्राप्त करने व आभार प्रकट करने का दिन है।
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